Header Ads Widget

देख भाई देख

Ticker

अगर सबकुछ भगवान की मर्जी से हो रहा है, तो उसका परिणाम हमें क्यों भोगना पड़ता है?


 अक्सर लोग कहते हैं, "भगवान की मर्जी के बिना तो एक पत्ता भी नहीं हिलता।" फिर जब जीवन में कोई कठिनाई आती है, तो सवाल उठता है—अगर सब कुछ भगवान की मर्जी से हो रहा है, तो फिर हमें उसके परिणाम क्यों भोगने पड़ते हैं? क्या हमारे कर्म भी भगवान की इच्छा से ही प्रेरित होते हैं? अगर हां, तो फिर उनके दंड का बोझ हमारे ऊपर क्यों आता है?

इस प्रश्न का उत्तर गीता और अध्यात्म में स्पष्ट रूप से मिलता है। भगवान ने इस सृष्टि को एक सुनियोजित व्यवस्था के रूप में रचा है, जिसमें कर्म का सिद्धांत अपरिवर्तनीय रूप से कार्य करता है। इसका अर्थ यह है कि हमारे कर्म, हमारे ही निर्णयों का परिणाम होते हैं, न कि भगवान की कोई पूर्वनिर्धारित योजना। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—

"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।"
(अर्थात: तुम्हें कर्म करने का अधिकार है, लेकिन उसके फल पर नहीं।)

इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्य को कर्म करने की स्वतंत्रता दी गई है, लेकिन उसके फल का निर्धारण ईश्वरीय व्यवस्था के अनुसार होता है। यह नियम भगवान द्वारा बनाए गए हैं, लेकिन उन नियमों के भीतर हम अपने कर्मों के लिए स्वयं उत्तरदायी हैं।

क्या हमारे कर्म भगवान की इच्छा से होते हैं?

आध्यात्मिक गुरु प्रेमानंद महाराज ने इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा था—
"अगर आप मानते हैं कि आपके कर्म भगवान की मर्जी से हो रहे हैं, तो आप अपनी इच्छा से आचरण करना बंद कर दीजिए। फिर देखिए, क्या भगवान आपसे जबरदस्ती कुछ कराते हैं?"

यह कथन स्पष्ट करता है कि हमारे कर्म, हमारे स्वयं के विचारों, इच्छाओं और फैसलों से प्रेरित होते हैं। भगवान ने हमें स्वतंत्र इच्छा (Free Will) दी है, जिसका अर्थ यह है कि हम अपने कर्मों का चुनाव स्वयं करते हैं। यदि हमारे निर्णय गलत होते हैं, तो उनके परिणामस्वरूप हमें कष्ट उठाना पड़ता है।

कर्म और उसके परिणाम का सिद्धांत

भगवान ने संसार को एक न्यायसंगत व्यवस्था के रूप में बनाया है, जिसमें कर्म के अनुसार ही फल मिलता है। इसे कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है—

  • यदि कोई व्यक्ति आग में हाथ डालता है, तो जलना निश्चित है।
  • यदि कोई स्वस्थ आहार लेता है और व्यायाम करता है, तो उसका शरीर स्वस्थ रहेगा।
  • यदि कोई गलत मार्ग अपनाता है, तो उसका परिणाम भी उसे भुगतना होगा।

यह नियम स्वतः कार्य करता है। भगवान इसमें हस्तक्षेप नहीं करते, क्योंकि उन्होंने पहले ही यह व्यवस्था बना दी है कि "जैसा कर्म, वैसा फल।"

क्या भगवान हमारे दुखों के लिए उत्तरदायी हैं?

यदि कोई व्यक्ति कहे कि "सब कुछ भगवान की मर्जी से हो रहा है," तो इसका अर्थ यह नहीं कि भगवान हमारे हर कर्म को नियंत्रित कर रहे हैं। भगवान ने हमें विचार करने, निर्णय लेने और कर्म करने की स्वतंत्रता दी है। इसलिए, हमारे कर्मों का परिणाम हमें ही भोगना पड़ता है, चाहे वह सुख हो या दुःख।

कर्मयोग: जीवन में संतुलन का मार्ग

गीता हमें सिखाती है कि भाग्यवाद (निष्क्रियता) की भावना गलत है। यह कहना कि "सब कुछ भगवान की मर्जी से हो रहा है, इसलिए कुछ भी करना व्यर्थ है," अकर्मण्यता को जन्म देता है। भगवान कृष्ण ने स्पष्ट किया है कि हमें बिना फल की चिंता किए हुए कर्म करना चाहिए।

भगवान ने हमें कठपुतली नहीं बनाया, बल्कि हमें सोचने, समझने और निर्णय लेने की शक्ति दी है। उनके द्वारा बनाई गई व्यवस्था में कर्म और उसके फल का सिद्धांत कार्य करता है। इसलिए, यदि हम अपने कर्मों के प्रति सचेत रहते हैं और सही मार्ग अपनाते हैं, तो हमें सकारात्मक फल मिलते हैं। लेकिन यदि हम गलत कर्म करते हैं, तो उसके दुष्परिणाम का उत्तरदायित्व भी हमारा ही होता है।

इसलिए, अपने जीवन को सार्थक बनाने के लिए आवश्यक है कि हम अपने कर्मों को सही दिशा में लगाएँ, क्योंकि भगवान की मर्जी यह नहीं कि हम कष्ट भोगें, बल्कि यह है कि हम अपने कर्मों के माध्यम से सीखें, आगे बढ़ें और सच्चे अर्थों में जीवन को समझें।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ