छत्तीसगढ़ की धरती अपनी समृद्ध सांस्कृतिक परंपराओं और लोक आस्थाओं के लिए जानी जाती है। यहां होली के उत्सव में अरंड (अरंडी) के पेड़ का विशेष महत्व है। गांव-गांव में होलिका दहन से पहले अरंड के पेड़ की डाली गाड़ने की परंपरा निभाई जाती है, जिसे स्थानीय भाषा में 'डाड़ गाड़ना' कहा जाता है।
पुरानी बस्ती और महामाया मंदिर की परंपरा
राजधानी रायपुर के 5,000 साल पुराने महामाया मंदिर में इस परंपरा का विशेष महत्व है। बसंत पंचमी के दिन मां महामाया, मां सरस्वती और मां काली की पूजा-अर्चना के बाद अरंड के पेड़ को गाड़ा जाता है और उसकी विधिवत पूजा की जाती है। इही बेरा ले मोहल्ला के मनखे होलिका बर लकड़ी, कंडा इकट्ठा करना चालू करथे। इस स्थान पर 40 दिन तक लकड़ी एकत्र की जाती है, और होली के एक दिन पहले होलिका दहन किया जाता है।
"जिहां अरंड के डाढ़ गाड़थे, तहां होली म अंगरा बरसे" - यानी जहां अरंड का पेड़ गाड़ा जाता है, वहां होलिका की अग्नि प्रज्वलित होती है।
महामाया मंदिर की अग्नि से होता है होलिका दहन
महामाया मंदिर में श्रेष्ठ मुहूर्त में सबसे पहले होलिका दहन किया जाता है, और फिर उसी अग्नि को मोहल्ले-मोहल्ले ले जाकर होली जलाने की परंपरा निभाई जाती है। यह प्रथा सदियों से चली आ रही है और इसका धार्मिक महत्व बहुत गहरा है।
अरंड का औषधीय और वैज्ञानिक महत्व
लोक मान्यता के अनुसार, अरंड के पेड़ की पूजा करने से वातावरण शुद्ध होता है और रोगाणुओं का नाश होता है। आयुर्वेद में इसे ‘शेर’ की उपाधि दी गई है, क्योंकि इसका हर भाग औषधीय गुणों से भरपूर होता है। "अरंड के हर डाढ़ म दवा बसथे, जिहां होलिका दहन होथे तहां रोग, बीमार ल भागा देथे।"
संस्कृति और परंपरा का अनोखा संगम
छत्तीसगढ़ की यह परंपरा सिर्फ धार्मिक आस्था तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके पीछे पर्यावरण, स्वास्थ्य और सामाजिक एकता का भी गहरा संदेश छुपा है। यहां का हर पर्व प्रकृति और लोक जीवन से जुड़ा हुआ है, जो छत्तीसगढ़ की संस्कृति को और भी खास बनाता है।
"छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया, तिहीच संस्कृति के सुघ्घर पहचान हे" - यानी छत्तीसगढ़ की परंपराएं ही इसकी असली पहचान हैं।
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