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महिला अखाड़ा: साध्वी बनने की राह और समाज से अलग होने की परंपरा


गंगा किनारे तपस्या और नई परंपरा

    प्रयागराज में गंगा तट पर माघ स्नान का अद्भुत नजारा है। हर तरफ साधु-संतों के अखाड़े बसे हुए हैं, लेकिन एक टेंट ऐसा भी है जो बाकी सबसे अलग है—गायत्री त्रिवेणी प्रयागपीठ पीठाधीश्वर जगतगुरु शंकराचार्य त्रिकाल भवंता सरस्वती जी महाराज का। यह महिला अखाड़ा अपनी विशिष्ट परंपराओं के कारण खास माना जाता है।

महिलाओं के लिए अलग अखाड़े की जरूरत क्यों?

    भवंता सरस्वती जी महाराज बताती हैं कि 52 शक्तिपीठों में देवी की पूजा होती है, लेकिन गर्भगृह में महिलाओं को प्रवेश नहीं दिया जाता। देवी के अभिषेक से लेकर श्रृंगार तक की जिम्मेदारी पुरुष निभाते हैं। इस असमानता को समाप्त करने और महिलाओं को धर्म और साधना से जोड़ने के लिए महिला अखाड़े की स्थापना की गई।

भवंता सरस्वती का सफर

    आयुर्वेदिक औषधियों में PhD कर चुकीं भवंता सरस्वती जी पहले प्रयागराज में मुस्लिम महिलाओं के लिए 'भारतीय राष्ट्रीय विकास परिषद' नामक NGO चलाती थीं। राजनीति में भी हाथ आजमाया, लेकिन असफल रहीं। महिलाओं को सुरक्षित माहौल में साधना का अवसर देने के उद्देश्य से उन्होंने महिला अखाड़े की स्थापना की।

साध्वी बनने की कठिन प्रक्रिया

महिला अखाड़े में संन्यासिनी बनने की प्रक्रिया कठोर होती है। एक बार साध्वी बनने के बाद—
✔ उन्हें जीवनभर भगवा वस्त्र धारण करना होता है।
✔ मांस, शराब आदि से पूरी तरह दूर रहना पड़ता है।
✔ साधना और संयम का पालन करना अनिवार्य होता है।
✔ भोजन सादा और उबला हुआ ही ग्रहण किया जा सकता है।

जब खुद का पिंडदान कर छोड़ना पड़ता है संसार

    संन्यास धारण करने से पहले महिला साध्वी को यह साबित करना होता है कि अब उसका संसार और परिवार से कोई नाता नहीं। इस प्रक्रिया में—

  1. परिवार से अंतिम विदाई – संन्यासिनी को अपने परिजनों से कहना होता है कि 'मैं तुम्हारे लिए मर चुकी हूं।'
  2. सांसारिक वस्त्रों का त्याग – वह अपने पुराने कपड़े उतारकर साध्वी के वस्त्र धारण करती है।
  3. केश विसर्जन – सिर मुंडवा कर खुद का पिंडदान करती है, मानो उसका पुराना जीवन समाप्त हो गया हो।
  4. 108 बार गंगा स्नान – यह प्रक्रिया आत्मशुद्धि का प्रतीक मानी जाती है, इसके बाद ही साध्वी बनने की आधिकारिक स्वीकृति मिलती है।

महिला अखाड़ा: भेदभाव के खिलाफ एक कदम

    भवंता सरस्वती जी का मानना है कि धर्म और साधना के क्षेत्र में भी पुरुष वर्चस्व को चुनौती देने की जरूरत है। जब चार अखाड़ों से बढ़कर आज 13 हो सकते हैं, तो महिलाओं का अपना एक स्वतंत्र अखाड़ा क्यों नहीं हो सकता? विरोध के बावजूद, यह अखाड़ा कई महिलाओं के लिए साधना और आध्यात्मिक उत्थान का सुरक्षित स्थल बन चुका है।

महिला अखाड़ा सिर्फ साध्वी बनने की राह नहीं, बल्कि समाज में महिलाओं की धार्मिक और आध्यात्मिक पहचान को नया स्वरूप देने का एक प्रयास है।

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