हिन्दू धर्म में, पूजा-पाठ के बिना तिलक लगाने का प्रचलन है। तिलक का लगाना वैज्ञानिक और आध्यात्मिक लाभ प्रदान करता है, परंतु विभिन्न सम्प्रदायों में विभिन्न प्रकार का तिलक लगाने का प्रचलन है। इस संदर्भ में, लोगों के लिए यह प्रश्न होता है कि कौन सा तिलक लगाना उत्तम होता है, लेकिन इस विषय में उन्हें अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं होती।तो, चलिए जानते हैं सभी प्रकार के तिलक का महत्व और इस बारे में कि कौन सा तिलक लगाना श्रेष्ठ होता है...शास्त्रों में कहा गया है -
'स्नाने दाने जपे होमो देवता पितृकर्म च।
तत्सर्वं निष्फलं यान्ति ललाटे तिलकं विना'॥
अर्थात, तिलक के बिना तीर्थ स्नान, जप कर्म, दानकर्म, यज्ञ होम, पितर हेतु श्राद्ध कर्म तथा देवों की पूजा-अर्चना, ये सभी कर्म निष्फल हो जाते हैं।
शास्त्रों के अनुसार, यदि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तिलक नहीं लगाते हैं, तो वे चाण्डाल हैं।
हिन्दू धर्म में कई सम्प्रदाय हैं और सभी सम्प्रदायों में अलग-अलग प्रकार के तिलक लगाने की परम्परा है। तिलक, माथे पर लगाने से व्यक्ति के आत्मिक भाव में वृद्धि होती है और यह मनुष्य के मन को स्थिर करता है। तिलक मस्तक के बीचों-बीच यानि आज्ञा चक्र पर लगाया जाता है और तिलक लगाने के दौरान अंगुली के दवाब से इस चक्र की ऊर्जा जागृत होती है, जिसके कई लाभ हैं। इसे चेतना केंद्र भी कहते हैं। वैज्ञानिक तर्क के अनुसार भी तिलक को माथे पर लगाने से शरीर में शांति और ऊर्जा की अनुभूति होती है। तिलक को विभिन्न प्रकारों से लगाया जाता है। तिलक लगाने के नियम और प्रकार विभिन्न संप्रदायों जैसे शैव, शाक्त, वैष्णव, आदि में भिन्न होते हैं।
केसर से तिलक: इस तिलक को मंगल कार्यों के लिए और यात्रा से पहले लगाया जाता है।
कुमकुम से तिलक: यह तिलक शक्ति का प्रतीक है और मन में उमंग और उत्साह को बढ़ाता है। इसे हल्दी और चूने के साथ मिलाकर बनाया जाता है, जो हमारे आज्ञा चक्र की शुद्धि करते हैं और चूने में मौजूद केल्शियम ज्ञान चक्र को प्रज्व्वलित करता है।
चंदन से तिलक: यह तिलक शांति और तेजस्विता को प्रदान करता है और पापों का भी नाश करता है। इसे वैष्णव सम्प्रदाय के लोग लगाते हैं। इसमें 64 प्रकार के तिलक बताए गए हैं।
भभूत से तिलक: यह तिलक आत्मिक स्थिति में वृद्धि होती है और मन को स्थिर करता है। ये तिलक तांत्रिक या शैव सम्प्रदाय के लोग लगाते हैं।
शास्त्रों में कहा गया है -
'पर्वताग्रे नदीतीरे रामक्षेत्रे विशेषतः। सिन्धुतिरे च वल्मिके तुलसीमूलमाश्रीताः॥
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